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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


21.

एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा शर्बत पी रहे थे कि शीलमणि ने आकर पूछा, दोपहर को कहाँ रह गये थे?

ज्वाला– बाबू प्रेमशंकर का मेहमान रहा। वह अभी देहात में ही हैं।

शील– अभी तक बीमारी का जोर कम नहीं हुआ।

ज्वाला– नहीं अब कम हो रहा है। वह पूरे पन्द्रह दिन से देहातों में दौरे कर रहे हैं। एक दिन भी आराम से नहीं बैठे। गाँव में जनता उनको पूजती है। बड़े-बड़े हाकिम का भी इतना सम्मान न होगा। न जाने इस तपन में उनसे कैसे वहाँ रहा जाता है। न पंखा न टट्टी, न शर्बत, न बर्फ। बस, पेड़ के नीचे एक झोंपड़े में पड़े रहते हैं। मुझसे तो वहाँ एक दिन भी न रहा जाये।

शील– परोपकारी पुरुष जान पड़ते हैं। क्या हुआ, तुमने मौका देखा?

ज्वाला– हाँ, खूब देखा। जिस बात का सन्देह था वही सच्ची निकली। ज्ञानशंकर का दावा बिल्कुल निस्सार है। उसके मुख्तार और चपरासियों ने मुझे बहुत-कुछ चकमा देना चाहा, लेकिन मैं इन लोगों के हथकंडों को खूब जान गया हूँ। बस, हाकिमों को धोखा देकर अपना मतलब निकाल लेते हैं। जरा इस भलमनसाहत को देखो कि असामियों के तो जान के लाले पड़े हुए हैं और इन्हें अपने प्याले-भर खून की धुन सवार है। इतना भी नहीं हो सकता कि जरा गाँव में जाकर गरीबों की तसल्ली तो करते। इन्हीं का भाई है कि जमींदारी पर लात मारकर दीनों की निःस्वार्थ सेवा कर रहा है, अपनी जान हथेली पर लिये फिरता है और एक यह महापुरुष हैं कि दीनों की हत्या करने से भी नहीं हिचकते। मेरी निगाह में तो अब इनकी आधी इज्जत भी नहीं रही, खाली ढोल है।

शील– तुम जिनकी बुराई करने लगते हो, उसकी मिट्टी पलीद कर देते हो। मैं भी आदमी पहचानती हूँ। ज्ञानशंकर देवता नहीं, लेकिन जैसे सब आदमी होते हैं वैसे ही वह भी हैं। ख्वामख्वाह दूसरों से बुरे नहीं।

ज्वाला– तुम उन्हें जो चाहो कहो पर मैं तो उन्हें क्रूर और दुरात्मा समझता हूँ।

शील– तब तुम उनका दावा अवश्य ही खारिज कर दोगे?

ज्वाला– कदापि नहीं, मैं यह सब जानते हुए भी उन्हीं की डिग्री करूँगा, चाहे अपील से मेरा फैसला मन्सूख हो जाये।

शील– (प्रसन्न होकर) हाँ, बस मैं भी यही चाहती हूँ, तुम अपनी-सी कर दो, जिससे मेरी बात बनी रहे।

ज्वाला– लेकिन यह सोच लो कि तुम अपने ऊपर कितना बड़ा बोझ ले रही हो। लखनपुर में प्लेग का भयंकर प्रकोप हो रहा है। लोग तबाह हुए जाते हैं, खेत काटने की भी किसी को फुरसत नहीं मिलती। कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ से शोक-विलाप की आवाज न आ रही हो। घर के घर अँधेरे हो गये, कोई नाम लेनेवाला भी न रहा। उन गरीबों में अब अपील करने की सामर्थ्य नहीं। ज्ञानशंकर डिग्री पाते ही जारी कर देंगे। किसी के बैल नीलाम होंगे, किसी के घर बिकेंगे, किसी की फसल खेत में खड़ी-खड़ी कौड़ियों के मोल नीलाम हो जायेगी। यह दीनों की हाय किस पर पड़ेगी? यह खून किसी की गर्दन पर होगा? मैं बदमामी से नहीं डरता लेकिन अन्याय और अनर्थ से मेरे प्राण काँपते हैं।

शीलमणि यह व्याख्यान सुनकर काँप उठी। उनके इस मामले को इतना महत्त्वपूर्ण न समझा था। उनका मौन-व्रत टूट गया, बोली– यदि यह हाल है तो आप वही कीजिए जो न्याय और सत्य कहे। मैं गरीबों की आह नहीं लेना चाहती। मैं क्या जानती थी कि जरा-से दावे का यह भीषण परिणाम होगा?

ज्वालासिंह के हृदय पर से एक बोझ-सा उतर गया। शीलमणि को अब तक वह न समझ थे। बोले, विद्यावती के सामने कौन-सा मुँह लेकर जाओगी?

शीलमणि– विद्यावती ऐसे क्षुद्र विचारों की स्त्री नहीं है और अगर वह इस तरह मुझसे रूठ भी जाये तो मुझे चिन्ता नहीं। मैत्री के पीछे क्या गरीबों का गला काट लिया जाय? मैं तो समझती हूँ, वह ज्ञानशंकर से चिढ़ती है। जब कभी उन्होंने मुझसे इस दावे की चर्चा की है वह मेरे पास से उठ कर चली गई है। उनकी मायालिप्सा उसे एक आँख नहीं भाती। दावा खारिज होने की खबर सुनकर मन में प्रसन्न होगी।

ज्वाला– उस पर आपका दावा है कि गायत्री के इलाके का प्रबन्ध करेंगे। उसकी इनसे एक दिन भी न निभेगी। वह बड़ी दयावती है।

शीलमणि– दावा खारिज करने पर वह अपील कर दें तो?

ज्वाला– हाँ, बहुत सम्भव है, अवश्य करेंगे।

शील– और वहाँ से इनका दावा बहाल हो सकता है?

ज्वाला– हाँ, हो सकता है।

शील– तब तो वह गरीब खेतिहरों को और भी पीस डालेंगे।

ज्वाला– हाँ, यह तो उनकी प्रकृति ही है।

शील– तुम खेतिहरों की कुछ मदद नहीं कर सकते?

ज्वाला– न, यह मेरे अख्तियार से बाहर है।

शील– किसानों को कहीं से धन की सहायता मिल जाय तब तो वह न हारेंगे?

ज्वाला– हार-जीत तो हाकिम के निश्चय पर निर्भर है। हाँ, उन्हें मदद मिल जाय तो वह अपने मुकदमें की पैरवी अच्छी तरह कर सकेंगे।

शील– तो तुम कुछ रुपये क्यों नहीं दे देते?

ज्वाला– वाह, जिस अन्याय से भागता हूँ, वही करूँ।

शील– प्रेमशंकर जी बड़े दयालु हैं। उनके पास रुपये हों तो वह खेतिहारों की मदद करें।

ज्वाला– मेरे विचार से वह इस न्याय के लिए अपने भाई से बैर न करेंगे।

इतने में बाहर कई मित्र आ गये। ग्वालियर का एक नामी जलतरंगिया आया हुआ था। क्लब में उसका गाना होने वाला था। लोग क्लब चल दिये।

दूसरी तारीख पर ज्ञानशंकर का मुकदमा पेश हुआ। ज्वालासिंह ने फैसला सुना दिया। उनका दावा खारिज हो गया। ज्ञानशंकर उस दिन स्वयं कचहरी में मौजूद थे। यह फैसला सुना तो दाँत पीसकर रह गये। क्रोध में भरे हुए घर आये और विद्या पर जले दिल के फफोले फोड़े। आज बहुत दिनों के बाद लाला प्रभाशंकर के पास गये और उनसे भी एक असद्वव्यवहार का रोना रो आये। एक सप्ताह तक यही क्रम चलता रहा। शहर में ऐसा कोई परिचित आदमी न था, जिससे उन्होंने ज्वालासिंह के कपट व्यवहार की शिकायत न की हो। यहाँ तक कि रिश्वत का दोषारोपण करने में भी संकोच न किया। और उन्हें शब्दाघातों से ही तस्कीन न हुई। कलम की तलवार से भी चोंटे करनी शुरू कीं। कई दैनिक पत्रों में ज्वालासिंह की खबर ली। जिस पत्र में देखिए उसी में उनके विरुद्ध कालम-के-कालम भरे रहते थे एंग्लो-इण्डियन पत्रों को हिन्दुस्तानियों की अयोग्यता पर टिप्पणी करने का अच्छा अवसर हाथ आया। एक महीने तक यही रौला मचा रहा। ज्वालासिंह के जीवन का कोई अंग कलंक और अपवाद से न बचा। एक सम्पादक महाशय ने तो यहाँ तक लिख मारा कि उनका मकान शहर भर के रसिक-जनों का अखाड़ा है। ज्ञानशंकर के रचना कौशल ने उनके मनोमालिन्य के साथ मिलकर ज्वालासिंह को अत्याचार और अविचार का काला देव बना दिया। बेचारे लेखों को पढ़ते थे और मन-ही-मन ऐंठकर रह जाते थे। अपनी सफाई देने का अधिकार न था। कानून उनका मुँह बन्द किए हुए था। मित्रों में ऐसा कोई न था जो पक्ष में कलम उठाता। पत्रों में मिथ्यावादिता पर कुढ़-कुढ़ कर रह जाते थे, जो सत्यासत्य का निर्णय किये बिना अधिकारियों पर छींटे उड़ाने में ही अपना गौरव समझते थे। घर से निकलना मुश्किल हो गया। शहर में जहाँ देखिए यही चर्चा थी। लोग उन्हें आते-जाते देखकर खुले शब्दों में उनका उपहास करते थे। अफसरों की निगाह भी बदल गयी। जिलाधीश से मिलने गये। उसने कहला भेजा, मुझे फुरसत नहीं है। कमिश्नर एक बंगाली सज्जन थे। उनके पास फरियाद करने गये। उन्होंने सारा वृत्तांत बड़ी सहानुभूति के साथ सुना, लेकिन चलते समय बोले, यह असम्भव है कि इस हलचल का आप पर कोई असर न हो। मुझे शंका है कि कहीं यह प्रश्न व्यवस्थापक सभा में न उठ जाये। मैं यथाशक्ति आप पर आँच न आने दूँगा। लेकिन आपको न्यायोचित समर्थन करने के लिए कुछ नुकसान उठाने पर तैयार रहना चाहिए, क्योंकि सन्मार्ग फूलों की सेज नहीं है।

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1 Comments

Gunjan Kamal

18-Apr-2022 05:34 PM

👏👌👌🙏🏻

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